बिंदिंया लगाती हो, काजल लगाती हो,
पाँव मे पायल, कानों मे झुमके लटकाती हो,
उस पर काली जुल्फ़ो मे गजरा महकाती हो,
सोलह श्रृंगार से जब खुद को सजाती हो,
जिया मे आग लगाती हो ||
जिया मे आग लगाती हो ||
झुका के सर को माथे पे लट लटकाती हो,
अँगुलियां उनमे फेर के, फिर उन्हे हटाती हो,
अन्जाने मे पर्दा गिराती हो, पर्दा उठाती हो,
हुस्न के ज़लवे जब अदाओं से दिखाती हो,
जिया मे आग लगाती हो ||
जिया मे आग लगाती हो ||
ख़ुदा ही जाने कि तुम देखती हो या तीर चलाती हो,
कहॉं से सीखा है ये जो शब्द-भेदी बाण चलाती हो,
अक्सर जब पलकें उठाती हो, तो नज़रें चुराती हो,
मगर पलकें झुका के जब नज़रों को मिलाती हो,
जिया मे आग लगाती हो ||
जिया मे आग लगाती हो ||
कभी तुम गुनगुनाती हो, कभी हंसती हंसाती हो,
कभी अनकहे शब्दों से, मन का ऑंगन महकाती हो,
और कभी कह के कुछ शब्द, ख़्यालों मे बस जाती हो,
इश्क, मोहब्बत, प्यार जब तुम बतियाती हो,
जिया मे आग लगाती हो ||
जिया मे आग लगाती हो ||
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